हमेशा से ज़िन्दगी में एक रिक्त स्थान रहा है.....
'अपने आपको व्यक्त करना', हमारी ज़िन्दगी में बहुत महत्वपूर्ण होता है,
यह बात में बहुत देर से समझी. अब लगता है जैसे शब्द ही नहीं हैं...
स्वार्थी, यह शब्द जैसे मेरी परिभाषा बन गया है..
सब अपने-२ रूप में मुझे इस अक्षर से पहचानते हैं..
बचपन से एक ही कोशिश रही सब काम दूसरों के लिए करूँ ताकि कोई स्वार्थी न कहे...
धीरे-२ शायद उससे में सब करना ही भूल गयी.. हाथ में कम्पन होता है जब कुछ अपने आप करो...
लेकिन जब इस मतलबी दुनिया को देखा की सब अपने लिए ही लड़ रहे हैं, तोह अजीब लगा...
हमेशा से एक ऐसे साथी की तलाश रही जो मेरे लिए भी कुछ करे..
लेकिन क्या में उसके लिए कुछ कर पाऊँगी.. गलत सही का मापदंड करते-२ अपना आत्मबल ही खो गया..
अजीब है सब कुछ.. लगता है जैसे कुछ तो नया है...
बचपन की परिभाशयों पे अब सब हस्ते हैं.. और तुम अपने में ग्लानी करके बस सोचते रह जाते हो..
सब अजीब है.. कभी सोचा था कोई तोह होगा जिसे में यह सब बताउंगी..
जिसे में वोह सब कहूँगी जो अभी तक अपने से कहा था.. की में स्वार्थी नहीं हूँ..
लेकिन शायद अब ना अपने को व्यक्त ही करती हूँ,
और इस झुंझलाहट में कहीं खो जाती हूँ..
आज जब वोह बोला 'क्यूँ है इतना स्वार्थ की में हमेशा अपनी जुबां चबाउन और तुम्हारी ही सुनता जाऊं'
तब लगा शायद यह ज़िन्दगी तोह निकल गयी..
ना अपने लिए ही किया, ना दूसरों के लिए...
अब सिर्फ एक रिक्त स्थान है................................................
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